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|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
प्रत्येक विनिमय नृत्य के सैम पर
परंपरा अपना स्वरुप निश्चित करती है
दुर्घटना असंभव को करती है संभव
षड़यंत्र को होती है उपलब्धि
सभ्यता दुहाई देती है नियति की
इतिहास समाधिस्त होता है व्यंग्य का पृष्ठ बनकर
संस्कृति देखती रहती है अवाक्
साहित्य बाँटता है करुणा

सभ्यता पीती है विस्मृति का विष
आगे बढ़ जाती है
इतिहास कर देता है समर्पित अपनी निधि
अभिलेख के शीतागार को
संस्कृति ग्रहण करती है
नमस्कार की मुद्राएँ
साहित्य पीटता रहता है
पानी पर बनी लकीरें
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया विरचना में
विनिमयशील रहती हैं
एक ही वारांगना की मुद्राएँ
भरती रहती है अपना कोष
सभ्यता, इतिहास, संस्कृति और साहित्य से
सापेक्ष या निरपेक्ष : निरपेक्ष या सापेक्ष
</poem>
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