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रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 7

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|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
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तुच्छ है राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6|<< तृतीय सर्ग / भाग 6]] | [[रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 1| चतुर्थ सर्ग / भाग 1 >>]]
 "तुच्छ है राज्य क्या है केशव?  :पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?  चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,  :कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,
पर वह भी यहीं गवाना है,
"मुझसे मनुष्य जो होते हैं,  :कंचन का भार न ढोते हैं,  पाते हैं धन बिखराने को,
पाते हैं धन बिखराने को, :लाते हैं रतन लुटाने को,
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
"प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों के ही घर,
:होते कबूतरों के ही घर,  महलों में गरुड़ ना होता है,  :कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
"होकर सुख-समृद्धि के अधीन, मानव होता निज तप क्षीण,
:मानव होता निज तप क्षीण,  सत्ता किरीट मणिमय आसन,  :करते मनुष्य का तेज हरण.
नर विभव हेतु लालचाता है,
"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,  :नर भले बने सुमधुर कोमल,  पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना, :आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
"उड़ते जो झंझावतों में, पीते सो वारी प्रपातो में,
:पीते सो वारी प्रपातो में,  सारा आकाश अयन जिनका,  :विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.
:सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.  दुर्योधन पर है विपद घोर,  :सकता न किसी विधि उसे छोड़,
रण-खेत पाटना है मुझको,
"संग्राम सिंधु लहराता है,  :सामने प्रलय घहराता है,  रह रह कर भुजा फड़कती है,
रह रह कर भुजा फड़कती है, :बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
"अब देर नही कीजै केशव, अवसेर नही कीजै केशव.
:अवसेर नही कीजै केशव.  धनु की डोरी तन जाने दें,  :संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
"हाँ , एक विनय है मधुसूदन, मेरी यह जन्मकथा गोपन,
:मेरी यह जन्मकथा गोपन,  मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,  :जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,  :सारी संपत्ति मुझे देंगे.  मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा, :दुर्योधन को दे जाऊँगा.
पांडव वंचित रह जाएँगे,
"अच्छा अब चला प्रमाण आर्य, हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
:हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.  रण मे ही अब दर्शन होंगे,  :शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें. "
रथ से रधेय उतार आया, हरि के मन मे विस्मय छाया,
:हरि के मन मे विस्मय छाया,  बोले कि "वीर शत बार धन्य,  :तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान."  [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6|<< तृतीय सर्ग / भाग 6]] | [[रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 1| चतुर्थ सर्ग / भाग 1 >>]]