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Kavita Kosh से
विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चाहक चहक रहे थे,
धूप, डीपदीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे.
पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,
'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना!?
आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,
'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है!?
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है.
नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,
हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधारों अधरों का,
पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नारों नरों का.
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