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{{KKRachna
|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
कुछ पागल तो कुछ बौराए रहना पड़ता है
कुछ ख़ाबों में आग लगाए रहना पड़ता है
पूछो मत ये आखिर कैसे,बस इतना समझो
ख़ुद ही अपना होश उड़ाए रहना पड़ता है
जाने किस दिन ख़ुद की अर्थी ख़ुद के काँधे हो
इसी वजह से सर् मुँड़वाए रहना पड़ता है
बेशक़ हक़ है हम पर पेंचो-ख़म का भी यारों
बरसों-सदियों क़र्ज़ उठाए रहना पड़ता है
यों ही आसानी से आती किसको है ये मौत ?
गोया मुँह-भर माहुर* खाए रहना पड़ता है
दुनिया हँसता देखेगी तो पत्थर मारेगी
थोड़ा-थोड़ा मुँह लटकाए रहना पड़ता है
सुख़नवरी का फ़न भी कितना आसाँ होता है
केवल अपना खून जलाए रहना पड़ता है
</poem>
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|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
कुछ पागल तो कुछ बौराए रहना पड़ता है
कुछ ख़ाबों में आग लगाए रहना पड़ता है
पूछो मत ये आखिर कैसे,बस इतना समझो
ख़ुद ही अपना होश उड़ाए रहना पड़ता है
जाने किस दिन ख़ुद की अर्थी ख़ुद के काँधे हो
इसी वजह से सर् मुँड़वाए रहना पड़ता है
बेशक़ हक़ है हम पर पेंचो-ख़म का भी यारों
बरसों-सदियों क़र्ज़ उठाए रहना पड़ता है
यों ही आसानी से आती किसको है ये मौत ?
गोया मुँह-भर माहुर* खाए रहना पड़ता है
दुनिया हँसता देखेगी तो पत्थर मारेगी
थोड़ा-थोड़ा मुँह लटकाए रहना पड़ता है
सुख़नवरी का फ़न भी कितना आसाँ होता है
केवल अपना खून जलाए रहना पड़ता है
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