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अहित की सोच / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
अहित की सोच
खरोंच देती
मेरे ह्रदय की धमनियों को
दूषित सा वातावरण
बनाता मेरे अन्तर में खाई
पनपते उद्वेग
कुटिल चेष्टाएं
द्वेषयुक्त चित्त
किसी उघेड़ बुन में
भागता रहता दिन रात
तुच्छ बातें भी
बहुत बड़ी लगतीं
औकात से परे
अस्तित्व समझता
क्योंकि अहम् के रहते
स्वयं को भी नहीं पहचान पाता
उस वक्त।
</poem>
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