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कविता को मरने दो / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
कविता को मरने दो
मर-मर कर पुनः
अवतरित होने दो
युग बदल गया बंधु
सृजनता में
नवीनता की तलाश है
तुम छन्द ताल की खाल
मज निकालों
अन्तर मन को खुला छोड़ दो
स्वच्छन्द बहाव में देखो,
क्या-क्या निकलता है
सच कहूं तो
पत्थर भी पिघलता है
कविता को मरने दो
नव पल्लव नव लालिमा
नव सरोज, सरिता नव
जीवन जब नव होगा
प्रस्फुटित होगी तरूणाई
बूढ़ी आंखों से मत देखो
युग-युगान्तर को महसूस करो
झरने फटने दो
कविता को मरने दो।
</poem>
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