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हिन्दी / मनोज चारण 'कुमार'

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हिन्दी हिन्द में हुई पराई, लोग अपनाते अंग्रेजी।
नित नये बदलते चोले, पूत हो गये रंगरेजी।
तुलसी-सूर-मीरां की भाषा, क्रंदन करती दिखती है।
कवि चंद के छंदो में भी, अब अग्रेजी बिकती है।
मैथिल कोकिल नहीं कूकती, मौन साध कर बैठी है।
सौतन बनी परायी भाषा, सिंहासन पर ऐंठी है।
प्रेम पीर घन नहीं बरसते, प्रेम की सूखी क्यारी है।
भूली सुजान कवित्त सुहाने, इलू-इलू भारी है।
कालिंदी कूंज कदम्ब डारन पर, कुब्जा कब्जा कर बैठी।
रस की खान बंद हुई अब, राधा माधव को खो बैठी।
पूंजीवादी लालाओं के आगे, होरी गाय गंवा बैठा है।
पंत प्रसाद निराला सब पर, पांव पसार भगत बैठा है।
अब कौन जलाता घर आपना, कहां कबीरा मिलता है।
हिंदी की हिंदी पर अब तो, बस केवल वक्त बदलता है।
हो गयी परायी अब तो, कुलवधु थी जो भारत की।
किसने सोचा था ऐसी होगी, आजादी मेरे भारत की।
गारत में गैरत है अपनी, भाषा घिरी जंजालो में।
जाने कब होस करेगी, सत्ता घिरी सवालों में।।
</poem>
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