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मैं लिखूंगा / मनोज चारण 'कुमार'

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<poem>
मन तो करता है लिख डालूं, प्रेयसी पर श्रृंगार कभी,
जी चाहता है मैं लिख डालूं, चंचल चितवन चाल सभी,
कलम मचलती है मेरी भी, लिखूं मैं भी प्यार कभी,
पर जब चीख सुनाई देती, लिखता हूँ अंगार तभी।

तांडव शंकर का लिखता हूँ, डमरू वाली तालों को,
मैं लिखता हूँ क्रूर कुटिल उन, दक्ष की सारी चालों को,
मैं वाणी का वीरभद्र हूँ, लिखता हूँ मैं भालों को,
जब-जब पाप प्रभावी होता, मैं लिखता धर्म के छालों को।

मैं नारायण का चक्र सुदर्शन, मधु-कैटभ पर चलता हूँ,
सृष्टी की रक्षा की खातिर, मैं सृष्टी पर लिखता हूँ,
योगनिद्रा में सोये विष्णु की, मैं निद्रा पर लिखता हूँ,
लिखूं मैं शेषनाग पर कविता, क्षीरसागर परलिखता हूँ।

मैं लिखता हूँ वनवासों को, मंथरा के प्रयासो को,
कुटिल कैकेयी की चालों को, जहरीली सी उन सांसों को,
दशरथ की मजबूरी लिखता, लिखता कायर इतिहासों को,
अवध के सन्नाटे लिखता, मैं लिखता केवट विश्वासों को।

मैं वंचित होता भिष्म लिखूंगा, सत्यवति की कूचालों को,
अंबा की पीङा को लिखता, और गांधारी के सवालों को,
पांचाली की पीङा लिखता, लिखता कर्ण के छालों को,
मैं कैसे भूल सकूंगा, लिखता महाभारत के भालों को।

मुझको तो लिखना कान्हा पर, कैसे भूलूं शिशुपालों को,
कैसे भूलूं वसुदेव के हाथों पङ गये उन छालों को,
संतानो की मौत झेलती, मात देवकी को मैं लिखूंगा,
मैं लिखूंगा क्रूर कंश की, अंधी जेल और उन तालों को।

शूर्प नखा की चालें लिखता, सीता के जज़्बात लिखूंगा,
ढली नहीं जो चौदह वर्षों, ऊर्मिल की काली रात लिखूंगा,
भ्राता हित सुत वन में भेजे, सुमित्रा के मैं भाव लिखूंगा,
पंथ निहारे पथराई आँखों से, कौशल्या के घाव लिखूंगा।

मैं लिखता मर्यादा राम की, और स्नेह भरत का लिखता,
मैं केशव की गीता लिखता, हलधर के क्रोध को लिखता,
लिखता हूँ मैं पार्थ को हरदम, मैं धर्म का ध्यान लिखूं,
लिखता हूँ मैं हरदम हरपल, मेरा देश महान लिखूं।

पर जब-जब आँसू देखूं आँखों में, कैसे मैं श्रृंगार लिखूं,
पीङा और चीखों में रहकर कैसे मैं फिर प्यार लिखूं,
मैं तो केवल सच कहता हूँ, सच का ही संवाद लिखूंगा,
कलम आग उगलती मेरी, मैं प्रलय का नाद लिखूंगा।।
</poem>
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