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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=लावण्या शाह}} खिले कँवल से, लदे ताल पर,<br>मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी.<br>गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण<br>चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग,<br>हो, ली !<br>एक बदलीने झुक कर पूछा,<br>"ओ, मधुकर, तू ,<br>गुनगुन क्या गाये?<br>"छपक छप -<br>मार कुलाँचे,मछलियाँ,<br>कँवल पत्र मेँ,<br>छिप छिप जायेँ !<br>"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,<br>बोला,<br>" कर दो, छाया,बदली रानी !<br>मैँ भी छिप जाऊँ,<br>कँवल जाल मेँ,<br>प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"<br>" रे धूर्त भ्रमर,<br>तू,रस का लोभी --<br>फूल फूल मँडराता निस दिन,<br>माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?<br>गरज रहे घन -<br>ना मैँ तेरी सहेली!"<br><br>
टप, टप, बूँदोँ ने<br>बाग ताल, उपवन पर,<br>तृण पर, बन पर,<br>धरती के कण क़ण पर,<br>अमृत रस बरसाया -<br>निज कोष लुटाया !<br><br>
अब लो, बरखा आई,<br>हरितमा छाई !<br>आज कँवल मेँ कैद<br>मकरँद की, सुन लो<br>प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,<br>
हो गई, सगाई !!