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|रचनाकार=मनोहर 'साग़र' पालमपुरी
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[[Category:ग़ज़ल]]

हु्स्न—ए—चमन से ख़ाक— ए—मनाज़िर ही ले चलें

ज़ेह्नों में फ़स्ल—ए—गुल का तसव्वुर ही ले चलें


बीती रूतों की याद रहे दिल में बरक़रार

आँखों में हुस्न—ए—चश्म—ए गुल—ए—तर ही ले चलें


हम है ज़मीं की ख़ाक तो ऐ आसमाँ के चाँद

आँखों को एक बार ज़मीं पर ही ले चलें


पहुँचे हुए फ़क़ीर हैं शायद न फिर मिलें

उनसे कोई दुआ—ए—मयस्सर ही ले चलें


झुलसा न दे हमें कहीं तन्हाइयों की धूप

साथ अपने कोई हुस्न का पैकर ही ले चलें


देखा था हमने जो कभी बचपन के दौर में

ज़ेह्नों में ख़्वाब का वही मंज़र ही ले चले


सहरा—ए—ग़म की प्यास बुझाने के वास्ते

पलकों पे आँसुओं का समंदर ही ले चलें


साकी के इल्तिफ़ात का इतना तो पास हो

आए हैं मयकदे में तो साग़र ही ले चलें


जिस अजनबी से पहले मुलाक़ात तक न थी

अब सोचते हैं क्यों न उसे घर ही ले चलें


‘साग़र’ ! अगर नविश्ता—ए—क़िस्मत न मिल सके

सीने पे क्यों न सब्र का पत्थर ही ले चलें ?



''इल्तिफ़ात = कृपा, दया, इनायत''