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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है।
ग़रीबी बावफ़ा आकर कलेजे से लगाती है।

भरा हो पेट जिसका उसके मुँह में ठूँस जाती है।
जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है।

अमीरी का दिवाला भर निकलता है सदा लेकिन,
ग़रीबी ऋण न चुकता कर सके तो जाँ गँवाती है।

अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा,
ग़रीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है।

हैं पूँजी और सत्ता की ये दोनों बेटियाँ ‘सज्जन’,
ग़रीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है।
</poem>
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