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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो।
रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो।

आपको जो नर्क लगता, स्वर्ग के मालिक, सुनें,
बस वहीं पाने को थोड़ी सी खुशी जाता है वो।

जिन की रग रग में बहे उसके पसीने का नमक,
आज कल देने उन्हीं को ख़ून भी जाता है वो।

वो मरे दिनभर दिहाड़ी के लिए, तू ऐश कर,
पास रख अपना ख़ुदा ऐ मौलवी, जाता है वो।

खौलते कीड़ों की चीखें कर रहीं पागल उसे,
बालने सब आज धागे रेशमी, जाता है वो।
</poem>
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