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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है।
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है।

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ,
एक तो ज़हर तिस पे मीठा है।

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं,
सच बड़ा गर्म और तीखा है।

देखिए बैल बन गये हैं हम,
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है।

सब को उल्लू बना दे जो पल में,
ये ज़माना मियाँ उसी का है।

अब छुपाने से छुप न पायेगा,
ज़ख़्म दिल तक गया है, गहरा है।

आज पत्थर का हो गया ‘सज्जन’,
कुछ न करने का ये नतीजा है।
</poem>
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