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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में।
और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में।

आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में।
प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में।

जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे,
वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में।

छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा,
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में।

ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ,
पर हज़ारों वायरस हैं मच्छरों के हाथ में।

काट दो जो हैं असहमत शोर है चारों तरफ,
आदमी अब आ गया है ख़ंजरों के हाथ में।
</poem>
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