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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ।
जाने कितने टुकड़ों में किस-किस के साथ गया हूँ।

हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ।
इतनी बार हुआ हूँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ।

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें,
झूटे वादों की क़ीमत पर मैं हर बार बिका हूँ।

अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है,
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार गिरा हूँ।

मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ,
माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ।
</poem>
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