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{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर।
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर।
नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे,
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर।
दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है,
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर।
जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती,
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर।
छोड़ो अब रोटी के टुकड़े का लालच,
टूट पड़ो मिल-जुल कर चूहेदानी पर।
अन्धों को साहब दुत्कारा करते हैं,
दया उन्हें आती है कुतिया कानी पर।
</poem>
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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर।
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर।
नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे,
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर।
दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है,
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर।
जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती,
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर।
छोड़ो अब रोटी के टुकड़े का लालच,
टूट पड़ो मिल-जुल कर चूहेदानी पर।
अन्धों को साहब दुत्कारा करते हैं,
दया उन्हें आती है कुतिया कानी पर।
</poem>