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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता, रुक जाना।
ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना।

उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते,
एक तो उनका चलना और दूजा रुक जाना।

दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको,
ख़तरनाक है खारे पानी का रुक जाना।

चींटी है तल्लीन बहुत भोजन ढोने में,
तुम तो हो इंसान मियाँ थोड़ा रुक जाना।

पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में,
अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक जाना।
</poem>
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