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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
अब न उतरे, बुख़ार टेढ़ा है।
प्यार का है विकार, टेढ़ा है।

स्वाद इसका है लाजवाब मगर,
आम का है अचार, टेढ़ा है।

जाने अब दिल का हाल क्या होगा,
आज नयनों का वार टेढ़ा है।

जिनकी मुट्ठी फँसी हो लालच से,
उन्हें लगता है जार टेढ़ा है।

ख़ार होता है एकदम सीधा,
फूल है मेरा यार, टेढ़ा है।

यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये,
इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है।
</poem>
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