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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है।
न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है।

अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही,
लगा अंड-बंड बकने ये स्वयं से जब मिला है।

न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल,
वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है।

इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी,
सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है।

यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत में,
वो लगा लुटाने फ़ौरन यहाँ जब भी जो भरा है।

चलो अब तो हम भी चलकर उसे बेक़ुसूर कह दें,
वो भरी सभा में रोकर सभी को दिखा रहा है।
</poem>
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