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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
उतर जाए अगर झूटी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।

शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।

वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।

जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़्लूम का हो शोरबा, तो।

समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।

जिसे मस्जिद समझते हो मियाँ तुम
वही हो, हाँ वही हो मैकदा, तो।

न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही साबित हुआ, तो।
</poem>
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