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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जीवन में कुछ बन पाते।
हम इतने चालाक न थे।

सच तो इक सा रहता है,
मैं बोलूँ या जग बोले।

हारेंगे मज़्लूम सदा,
ये जीते या वो जीते।

पेट भरा था हम सबका,
भूख समझ पाते कैसे।

देख तुझे जीता हूँ मैं,
मर जाता हूँ देख तुझे।
</poem>
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