भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पागल मन यूँ ही उदास है / मानोशी

2,120 bytes added, 22:52, 13 अप्रैल 2018
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मानोशी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मानोशी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}

<poem>
पागल मन यूँ ही उदास है,
कितना सुन्दर आसपास है।

काले बादल के पीछे से
झाँक रही इक किरण सुनहरी,
सारे दिन की असह जलन के
बाद गरजती झमझम बदरी,

बरखा की बूंदाबांदी जब
चेहरे पर छींटे बिखराती,
भरी दुपहरी शीश नवा कर
धीरे से संध्या बन जाती,

छोटी-छोटी खुशियों में ही
पलता जीवन का उजास है ।

मन की गलियों शोर मचे जब
उच्चारण बस ओंकार का,
मंदिर में जब साथ झुकें सर,
होता विगलन अहंकार का,

काली मावस भी सज जाती
दीपो के गहनों से दुल्हन,
सुख-दुःख के छोटे पल मिलकर
बन जाता इक पूरा जीवन

जब मिल जाते एक साथ स्वर
नाद ब्रह्म तब अनायास है।

बादल का इक छोटा टुकड़ा
कठिन डगर में छाँव उढ़ा दे,
निर्जन राहो में जब सहसा
कोई आकर हाथ बढ़ा दे,

बिना कहे ही मीत समझ ले
अर्थ हृदय में छुपे भाव का,
हृदयो का बंधन ऐसा हो
जाड़े में जलते अलाव सा,

अपने ही अन्दर सुख होता,
दुःख इच्छाओं का लिबास है।

पागल मन यूं ही उदास है...

</poem>