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{{KKRachna
|रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी
}}

जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।<br>
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।<br>
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।<br>
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।<br>
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।<br>
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।<br><br>

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।<br>
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।<br>
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।<br>
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।<br>
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।<br>
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।<br><br>