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|रचनाकार=जगदीश गुप्त |अनुवादक=|संग्रह=नाव के पाँव / जगदीश गुप्त
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सच हम नहीं, सच तुम नहीं नहीं। सच है महज़ सतत संघर्ष ही।
संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृंत वृन्त से झरकर कुसुम।जो लक्ष्य पन्थ भूल रुका नहीं,जो हार देख झुका नहीं,जिसने प्रणय पाथेय माना मरण को भी लिया हो जीत उसकी ही रही।है जीवन वही।सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।।
ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो है जहाँ चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे।
जो भी परिस्थितियाँ मिलें,काँटे चुभें कलियाँ खिलें,हारे टूटे नहीं इंसानइनसान, है जीवन बस सन्देश यौवन का संदेश यही।सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।नहीं।
हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मंझधार मँझधार को।जो साथ फूलों के चले,जो ढ़ाल ढाल पाते ही ढ़लेढले,यह ज़िंदगी ज़िन्दगी क्या ज़िंदगी ज़िन्दगी जो सिर्फ़ पानी सी बही।सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही। संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।पर झाँककर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।जब तक बँधी है चेतनाजब तक हृदय दुख से घनातब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।सच हम नहीं, सच तुम नहीं सच है महज़ संघर्ष ही।नहीं।
अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।
आकाश सुख देगा नहीं
धरती पसीजी है कहीं?!जिससे हृदय हए एक राही को बल मिले है ध्येय अपना तो वही।भटककर ही दिशा मिलती रही।सच हम नहीं, सच तुम नहीं। बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता।आदर्श हो सकती नहीं सच तन और मन की भिन्नता।जब तक बँधी है महज़ संघर्ष ही।चेतनाजब तक प्रणय दुख से घनातब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।सच हम नहीं, सच तुम नहीं।
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