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न जाने वतन आज क्यों / नईम

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जले पाँव, माथे पे सूरज का बोझा-
अनायास अपना मरण याद आया।
 
जिनकी अपनी पूँजी न कोई,
लगते जो ठेकेदारों-से,
पते-ठिकाने पूछ रहे वो
अहले जदब औ फनकारों से।
 
निराकार प्रभु की नजरें, साकार सगुण ये इनके बंधन,
हाथ बाँध इनके दरबारों खड़े हुए तहज़ीबोतमद्दुन।
 
रसविभोर हैं ये लक्ष्मी की-
पदचापों से, झंकारों से।
 
अभी ज़मीं से उठे नहीं ये, आसमान लाएँगे नीचे,
भोग रहे ये पुरुष प्रकृति को, महाभाव से आँखें भींचे;
परम्परा की पीठों पर ये
उग आए खर-पतवारों से।
 
रूप, रंग, रस, गंध गज़ब पर स्वाद नहीं है बिल्कुल,
रिश्तों में गहरे जाकर संवाद नहीं है व्याकुल।
आत्ममुग्ध संतुष्ट भयानक
अपने छोटे संसारों से।
</poem>
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