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गगनदेश चेतना के ख्ुाले किबारेकेन्द्र पर,घन सावन के आए।बन्द द्वार खोल कर रहस्य का!आसावरी-ध्रुपद में गातेअतल अतीत की दरार से,मोर नाचते आए।जान न पाया कबखिल उठा प्राण-क्यों, कैसेकण मिट्टी का!बीज विष्णुत्व का,सिन्धु छोड़कर आए।अंकुरित अर्थों से वर्णों और रूपों में,बिना कहे ही मुझसे मिलनेपग-पग पर सहज सरल,हृदय लगाने आए।अपने अंगों में न समाकरविद्युत्संचार से,मेरे कारण आए।नूतन व्यक्तित्व का सृजन कर!उठा बगूले धूमकेतु द्यावा और पृथिवी के,मण्डल को-घटाटोप घन आए।रक्तिम आलोक से प्रज्वल कर।बिजली मिथ्या मोह-पाश के पायल चमकातेबन्धनों को छिन्न कर,कड़कनाद क्षुद्र अवगुंठन को भंग कर आए।रंग-बिरंगे परिधानों में,मन हुलसाने आए।शिलीभूत पंजरों को तोड़ करझहराते काजल युग-युग के पर्वतपड़ावों लाँघ कर,कामरूप घन आए।नीचे से ऊपर तक आदि से अन्त तक,कभी सलिल बन, कभी मरुत बनबदल कर रोमकोशों,कोश भित्तिकाओं कोकभी तड़ित अणिमा से भूमा बन आए।-आँखों से मोती ढरकाते।परम की प्यास में अनन्त तक!वायुयान पर आए।मालकौस-चौताल सुनानेअनुभव की भूमिका में,मेघ बावरे आए।खिल उठा प्राण-कण मिट्टी का।
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