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|संग्रह=नई चेतना / महेन्द्र भटनागर
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हो नहीं सकती पराजित युग-जवानी !
संगठित जन-चेतना को,
युग पुरानी साधना को,
मेटने वाली सुनी है क्या कहानी ?
पैर इस्पाती कड़े जो
पर्वतों से दृढ़ खड़े जो,
कब शिथिल होती, प्रखर उनकी रवानी !
शक्ति का आह्नान करती,
शान से छाती उभरती,
बंद हो सकती नहीं जन-त्राण-वाणी !
1951
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