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{{KKRachna
|रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मानता हूँ कि जलद हो, बिना दिये जल लौट न जाओगे,
मगर यह अपनी मंदाकिनी कहाँ पहले बरसाओगे?
धरा के एक छन्द के तीन चरण तो डूबे पानी में,
जिन्दगी चौथे की, फँस गई, आग की खींचातानी में।
आग है गाँव–गाँव में नगर-नगर में लूकें दहक रहीं,
आस है बन-बागों में डगर-डगर में लूयें लहक रहीं।
झुलसते हैं कुंजों के कोण, लतायें जौहर करती हैं,
चितायें अमराई में देख, कोंपलें आहें भरती हैं।
किन्तु इस दावानल के बीच, लगाकर जीवन का तारा,
खेत में एक खड़ा है सन्त, शान्ति का लेकर इकतारा।
सभी को भावे, ऐसा राग सुनाता है प्यारा-प्यारा,
वहीं पर पहला धुरवा डाल, बहाओ कल्याणी धारा।
न समझो, उस दधीचि की, चन्द हड्डियों में सीमित काया।
महाद्वीपों के उपर आज पड़ रही है उसकी छाया॥
</poem>
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मानता हूँ कि जलद हो, बिना दिये जल लौट न जाओगे,
मगर यह अपनी मंदाकिनी कहाँ पहले बरसाओगे?
धरा के एक छन्द के तीन चरण तो डूबे पानी में,
जिन्दगी चौथे की, फँस गई, आग की खींचातानी में।
आग है गाँव–गाँव में नगर-नगर में लूकें दहक रहीं,
आस है बन-बागों में डगर-डगर में लूयें लहक रहीं।
झुलसते हैं कुंजों के कोण, लतायें जौहर करती हैं,
चितायें अमराई में देख, कोंपलें आहें भरती हैं।
किन्तु इस दावानल के बीच, लगाकर जीवन का तारा,
खेत में एक खड़ा है सन्त, शान्ति का लेकर इकतारा।
सभी को भावे, ऐसा राग सुनाता है प्यारा-प्यारा,
वहीं पर पहला धुरवा डाल, बहाओ कल्याणी धारा।
न समझो, उस दधीचि की, चन्द हड्डियों में सीमित काया।
महाद्वीपों के उपर आज पड़ रही है उसकी छाया॥
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