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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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अभी में लौटा हूँ अपने भाई को दफ़्न कर के
न जाने क्यों लग रहा है मैं चल रहा हूं मर के
अगर तू मेरी तरह से टूटे तो जान दे दे
मैं ख़ुद को करता हूं रोज़ यकजा बिखर बिखर के
जो तुमने दहशत का रंग ख़ुद पे चढ़ा लिया है
डरोगे इक दिन तुम अपने चेहरे को देख कर के
अभी तअल्लुक़ बहाल करना नहीं है मुश्किल
बुलालो कैफे में आज ही उनको फोन कर के
हम एक दूजे को दिल की हालात बता न पाए
मिले तो किस्से सुना रहे थे इधर उधर के
</poem>
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अभी में लौटा हूँ अपने भाई को दफ़्न कर के
न जाने क्यों लग रहा है मैं चल रहा हूं मर के
अगर तू मेरी तरह से टूटे तो जान दे दे
मैं ख़ुद को करता हूं रोज़ यकजा बिखर बिखर के
जो तुमने दहशत का रंग ख़ुद पे चढ़ा लिया है
डरोगे इक दिन तुम अपने चेहरे को देख कर के
अभी तअल्लुक़ बहाल करना नहीं है मुश्किल
बुलालो कैफे में आज ही उनको फोन कर के
हम एक दूजे को दिल की हालात बता न पाए
मिले तो किस्से सुना रहे थे इधर उधर के
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