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|संग्रह=सावण फागण / लक्ष्मीनारायण रंगा
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<poem>
लाग जावै
जणै
ऊंजळ दांतां में
कोई काळो कीड़ो-
तो
मसूड़ा मांय गैराई सूं गडियोड़ा
दांत भी
हिल जावै
जड़ण सूं

होळै होळै
दाड़ां-दान्त
सड़न लागै
झरण लागै,
बिगड़ जावै मूंढै रो स्वाद
समाजावै सांसां में बास
पण
मोह आन्धो मन,
इण सड़ियोड़ा दांतां नैं
आप रै हाथां
उखाड़ फैंकण रो,
निकलवावणै रो
करै नहीं सा‘स-र
जड़ां छोडियोड़ा दांत
सूतां-जागतां
खावतां-पीवतां
हंसता-बोलता
दै‘ता रै
एक तीखो दरद
एक गैरी टीस-कै
आदमी छटपटावतो रै
</poem>
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