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|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
}}
 
 
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भूल रहे हो धर्मराज तुम
::मैं भी हूँ सोचता जगत से
::कैसे मिटे जिघान्सा,
::किस प्रकार धरती पर फैले
::करुणा, प्रेम, अहिंसा.
::धरती हो साम्राज्य स्नेह का,
::जीवन स्निग्ध, सरल हो.
::मनुज प्रकृति से विदा सदा को
::दाहक द्वेष गरल हो.
::किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,
::पहुँच सका यह जग है,
::अभी शांति का स्वप्न दूर
::नभ में करता जग-मग है.
::किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
::बार-बार टकरा कर,
::रुद्ध मनुज के मनोद्देश के
::लौह-द्वार को पा कर.
::क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
::अगणित अभी यहाँ हैं,
::बढ़े शांति की लता, कहो
::वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
::शांति नाम उस रुचित सरणी का,
::जिसे प्रेम पहचाने,
::खड्ग-भीत तन ही न,
::मनुज का मन भी जिसको माने
::घृणा-कलह-विफोट हेतु का
::करके सफल निवारण,
::मनुज-प्रकृति ही करती
::शीतल रूप शांति का धारण.
::शांति, सुशीतल शांति,
::कहाँ वह समता देने वाली?
::देखो आज विषमता की ही
::वह करती रखवाली.
::वह रखती परिपूर्ण नृपों से
::जरासंध की कारा.
::शोणित कभी, कभी पीती है,
::तप्त अश्रु की धारा.
::थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
::वह जो जली समर में.
::असहनशील शौर्य था, जो बल
::उठा पार्थ के शार शर में.
::पापी कौन? मनुज से उसका ::न्याय चुराने वाला? ::या कि न्याय खोजते विघ्न
न्याय चुराने ::का सीस उड़ाने वाला?
या कि न्याय खोजते विघ्न
का सीस उड़ाने वाला?[[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4|<< पिछला भाग]]