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|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
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[[Category:ग़ज़ल]]

बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई

सड़क पे फेंक दी तो ज़िंदगी निहाल हुई


बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से

कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई


कोई निजात की सूरत नहीं रही, न सही

मगर निजात की कोशिश तो एक मिसाल हुई


मेरे ज़ेह्न पे ज़माने का वो दबाब पड़ा

जो एक स्लेट थी वो ज़िंदगी सवाल हुई


समुद्र और उठा, और उठा, और उठा

किसी के वास्ते ये चाँदनी वबाल हुई


उन्हें पता भी नहीं है कि उनके पाँवों से

वो ख़ूँ बहा है कि ये गर्द भी गुलाल हुई


मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी

तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई