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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
यूँ ही गाहे ब गाहे बेख़ुदी में आ ही जाता है
तुम्हारा ज़िक्र मेरी शाइरी में आ ही जाता है

कोई कोशिश करे कितनी भी इस से बचने की बेशक
ज़्ारा सा ऐब फिर भी आदमी में आ ही जाता है

नहीं डरता जो सायों से न टूटा हौसला जिस का
वो इक दिन तीरगी से रौशनी में आ ही जाता है

मेरे मासूम बच्चों को रुलाने के लिए कोई
ख़िलौनेवाला रोज़ाना गली में आ ही जाता है

बहुत शर्मीला है चंदा छिपा रहता कहीं दिन भर
ये दिन ढलते नहाने को नदी में आ ही जाता है

मैं तेरे नाम ग़ज़लों के सभी अश्आर कर देता
मगर ‘अज्ञात’ शे‘रे आख़िरी में आ ही जाता है
</poem>
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