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{{KKRachna
|रचनाकार=जंगवीर सिंंह 'राकेश'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
अश्क फरियाद हुए जाते हैं.
हम तो बरबाद हुए जाते हैं.
दिन-ब-दिन यानि तिरे हिज्र में हम.
ग़म की तादाद हुए जाते हैं.
जबकि इन आंखों में सूखी नदी है
आँसू ईजाद हुए जाते हैं।
वो है इक ताजमहल-सी तो हम.
फ़र्रूख़ाबाद हुए जाते हैं.
चाक पर रक्ख़ा है सा'नी मिसरा.
और इरशाद हुए जाते हैं.
इक क़यामत है वो लड़की और हम.
उस पे बरबाद हुए जाते हैं.
शे'र ऐसे भी बहुत हैं मेरे,
ख़ुद-ब-ख़ुद याद हुए जाते हैं.
</poem>
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अश्क फरियाद हुए जाते हैं.
हम तो बरबाद हुए जाते हैं.
दिन-ब-दिन यानि तिरे हिज्र में हम.
ग़म की तादाद हुए जाते हैं.
जबकि इन आंखों में सूखी नदी है
आँसू ईजाद हुए जाते हैं।
वो है इक ताजमहल-सी तो हम.
फ़र्रूख़ाबाद हुए जाते हैं.
चाक पर रक्ख़ा है सा'नी मिसरा.
और इरशाद हुए जाते हैं.
इक क़यामत है वो लड़की और हम.
उस पे बरबाद हुए जाते हैं.
शे'र ऐसे भी बहुत हैं मेरे,
ख़ुद-ब-ख़ुद याद हुए जाते हैं.
</poem>