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|रचनाकार=विजयशंकर चतुर्वेदी |अनुवादक=|संग्रह=पृथ्वी के लिए तो रूको / विजयशंकर चतुर्वेदी
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मन ही मन हमने फोड़े थे पटाखे
 बेटी, दुनिया में तुम्हारे स्वागत के लिए.
पर जीवन था घनघोर
 उस पर दांपत्य दाम्पत्य जीवन कठोर
फिर एक दिन भीड़ में खो गईं तुम
 
ले गया तुम्हें कोई लकड़बग्घा
 या उठा ले गये गए भेड़िए 
लेकिन तुम हमारी जाई हो
 
कौन कहता है कि तुम पराई हो
 
जब कभी मैं खाता हूँ अच्छा खाना
 
तो हलक से नहीं उतरता कौर
 
किसी बच्चे को देता हूँ चाकलेट
 
तो कलेजा मुँह को आता है,
 
तुमने किससे माँगे होंगे गुब्बारे
 किससे की होगी जिदज़िदअपनी पसंदीदा चीजों पसन्दीदा चीज़ों के लिए किसकी पीठ पर बैठकर हँसी होगी होंगी तुम? 
तुम्हें हँसते हुए देखे हो गए कई बरस
 
तुम्हारा वह पहली बार 'जणमणतण' गाना
 
पहली बार पैरों पर खड़ा हो जाना
 
जब किसी को भेंट करता हूं रंगबिरंगे कपड़े
 
तुम्हारे झबलों की याद आती है
 जिनमें लगे होते थे चूँचूँ करते खिलौने  अब कौन झारता होगा तुम्हारी नज़र जो अक्सर ही लग जाती थी बाद में पता नहीं किसकी लगी ऐसी नज़र कि पत्थर तक चटक गया
अब तो बदल गयी होगी तुम्हारी आँख भी
 हो सकता है तुम्हें मैं न पहचान पाऊँ तुम्हारी बोली से 
लेकिन मैं पहचान जाऊँगा तुम्हारी आँख के तिल से
 जो तुम्हें मिला है तुम्हारी माँ से
जब भी कभी मिलूँगा इस दुनिया में
 
मैं पहचान लूँगा तुम्हारे हाथों से
 वे तुम्हें मैंने दिए हैं।हैं ।</poem>
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