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{{KKRachna
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
ख़्वाहिश तो थी कि टाल दूँ,टाले कहाँ गये
अब भी मैं सोचता हूँ उजाले कहाँ गये।
केवल समंदरों को दोष देके क्या मिला,
जितना खँगालना था खँगाले कहाँ गये।
जुल्मत के चश्मदीद गवाहों को क्या हुआ,
शब भर चिराग जागने वाले कहाँ गये।
मक़्सद अगर नहीं तो यहाँ क्या जिये कोई,
सीने के जख़्म पाँव के छाले कहाँ गये।
टपके हैं खून बन के ये आँखों से बारहा,
पहलू के दर्द 'ज्ञान' सम्हाले कहाँ गये।
</poem>
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|संग्रह=
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ख़्वाहिश तो थी कि टाल दूँ,टाले कहाँ गये
अब भी मैं सोचता हूँ उजाले कहाँ गये।
केवल समंदरों को दोष देके क्या मिला,
जितना खँगालना था खँगाले कहाँ गये।
जुल्मत के चश्मदीद गवाहों को क्या हुआ,
शब भर चिराग जागने वाले कहाँ गये।
मक़्सद अगर नहीं तो यहाँ क्या जिये कोई,
सीने के जख़्म पाँव के छाले कहाँ गये।
टपके हैं खून बन के ये आँखों से बारहा,
पहलू के दर्द 'ज्ञान' सम्हाले कहाँ गये।
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