भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatGhazal}}
<poem>
मेरे अपने होकर मेरा दाना-पानी लूट रहे
पाकिस्तान का डर दिखलाकर हिन्दुस्तानी लूट रहे
जनता पकी फ़सल है कोई जब चाहा तब काट लिया
राजा हो तुम हम ग़रीब को क्यों मनमानी लूट रहे
 
पहले मेरी इज़्ज़त लूटी फिर धन-दौलत को लूटा
हाड़-मांस की बारी अब ताक़त जिस्मानी लूट रहे
 
अब तो पर्दाफ़ाश हो चुका सारी दुनिया देख रही
हार चुके हो खेल तो क्यों करके बेमानी लूट रहे
 
चोर लुटेरे सिर्फ़ लूटते तो भी कोई बात न थी
अनपढ़ और गँवार समझकर ज्ञानी, ध्यानी लूट रहे
 
पूछ रहा है देश हमारा, देश के चौकीदारों से
शाम रंगीली लूट चुके, अब सुबह सुहानी लूट रहे
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits