भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
काम सारे ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही
सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ-मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे
 
धूप कमरे में घुसी तो
हड़बड़ाकर उठ गई
गर्म होते सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे
 
उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में घुसी
 
चाय पीकर
सूर्य बाबा ने कहा
जीती रहो
खाईयाँ
दो पीढ़ियों के बीच की
सीती रहो
 
मुस्कुरा चंचल नदी
सबको जगाने चल पड़ी
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits