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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
दिन गर्म है लू चली है गला काटती हुई
सेंक बाँटते सूरज में उत्साह है अतिरेक
कमरा तपा हुआ है

बेघर छाया ढूँढ़ते फिर रहे लू की थपेड़ों में जो
कोई ईश्वर से कहो कि दया करे उन पर
कोई कहो कि रात आ जाए ठीक अभी
कोई कमाल हो जाए किसी विज्ञानलोक में
चले जाएँ कभी कुदरत के मारे

ताप की तड़प जानता हूँ
कोई ईश्वर नहीं जो बेघर लोगों के साथ है
इनसान ही है जो कहीं लड़ता कि
दुनिया में सबके सिर पर छत हो

पानी पीता हूँ कि आँसू सूख न जाएँ
गर्म हवा में निकलता हूँ ढूँढ़ता
जिसे मेरे आँसू चाहिए
दिन गर्म है लू चली है गला काटती हुई।

</poem>
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