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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
न केवल जी रहा हूँ
अकेलेपन के कायर सुख में शामिल कर चला हूँ
गुलमोहर को जो खिड़की पर हँसता है मुझे देख-देख
परिवार के साथ है
मुहल्ले में औरों के साथ मिलता जुलता है
मेरे लिए अलग से ही है प्यारा उसका
अपनी तमाम व्यवस्तताओं के बीच
खिड़की पर आ अपनी हँसी बिखेर जाता है

अनन्त सम्भावना थी मेरे ख़त्म हो जाने की
जीवाणु अनगिनत मुझे करते रहे लाचार
पर हठी मैं कि सिर्फ़ उसकी हँसी की आशा में जीता रहा
मेरा आश्चर्य मुग्ध करता है उसे
और एकबारगी झूम सा उठता है
उसके पत्ते हरे बहुत हरे हैं इन दिनों
अपनी ख़ुशी जताने के लिए डालियों को
वह मेरे और क़रीब ले आता है

परेशान जब बतलाया उसे कि
मुझे ख़ुद से है नफ़रत तो
कहा उसने कि
लिखते रहो, इससे ज़्यादा करने वाले सभी
इन्तज़ार में हैं कि तुम और और लिखोगे

यही जानकर जिए जा रहा हूँ

अकेलेपन के कायर सुख में शामिल कर चला हूँ
गुलमोहर को जो खिड़की पर हँसता है मुझे देख।

</poem>
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