भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatKavita}}
<poem>
डूबता पत्थर नहीं हूं सूर्य हूं मैं
हर सुबह तेरे मुकाबिल आ रहूंगा।
डूब जाउंगा यूं ही आहिस्ता-आहिस्ता
पुरनिगाह कोई यूं ही देखता रहे।
जो नहीं है वो ही शै बारहा क्यों है
किसी की यादों को भला मेरा पता क्यों है।
वो जो रंग मिटाये हमने
अब दाग़-दाग़ जलते हैं।
रोज देखता हूं थकता नहीं हूं
यूँतो कोई आस रखता नहीं हूं।
तू तो बदल गई जो, तस्वीर ना बदलना