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<poem>

ए दिल बता ये क्यूँ मेरा खाना ख़राब है
कहते हैं लोग इश्क जिसे क्या अज़ाब है

वादी में पास ही कहीं बजता रबाब है
लहरों से खेलती हुई बहती चिनाब है

सच मे वो भर गया है सितारों से मेरी माँग
या फिर ये मेरी जागती आँखों का ख्वाब है

दुनिया का इल्म सबका अधूरा है आज तक
हालाँकि जीस्त रोज़ नयी इक किताब है

कैसे कोई यकीन करे ज़िंदगी तेरा
सब जानते हैं तुझको तू मिसले हुबाब है

आती है तिश्नगी भी तभी क्यूँ उरूज़ पर
आता नजर के सामने जब भी सराब है

अब जा के उस मुक़ाम पे ठहरी है ज़िंदगी
जिस जा कोई सवाल न कोई जवाब है

अपने हिसार में लिए रहता है रात दिन
तुझसे जियादा दर्द तिरा कामयाब है

मुझको तो बस नसीब से वो मिल गये सुमन
इतना कहाँ हसीन मेरा इंतिखाब है

</poem>