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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
हजारों साल की यातनाओं को
खून से टपकते घावों को
जिसपे खौलता तेल डाल करके
लहूलुहान किया सर पावों को

उन चीखों में दबी आवाज सुना हूँ
जिनके शरीर को पीट-पीट चीथड़े किये
मैं उनकी खामोशी में कई बार मरा हूँ
मैं उन आहों से कई इंकलाब बना हूँ

कभी यज्ञ में जला दिया तुमने
कभी बलि चढ़ दिया तुमने
कभी अंगूठा काट लिया तुमने
कभी नंगा घुमा दिया तुमने

हमारी संपति पर अपनी नज़र थे गड़ाये
इसीलिए अनपढ़ बाप से अंगूठा लगवाये
खेत-खलियान सारे बगीचे को ले लिया
गांव से बाहर हमें अछूत कह ढकेल दिया

कई-कई रात सड़े मांस खाते रहे
कई-कई रातें हमें, भूखंे बिताते रहे
कोई भी आकर हमें पीटता था
माँ बहनों का रेप कर देता था

हम एक लाठी से लड़ते रहे
हम पर कई लाठियां बरसती रहीं
हमारे लोगों में फूट डाल दिया
भाइयों के बीच में दीवार किया
रिश्ते में कैसे दीवारें उठती रहीं

हम दौर में सितमगर तुम ही थे
हर दौर में जज तुम ही थे
हमें न्याय कैसे मिलता
जब गांव के प्रधान भी तुम ही थे

हमारी लाशें गांव के पेड़ों पर
गली चौराहों पर लटकती थीं
कई लोग जिन्दा जलाये गये
कई दिन घर में रोटी नहीं बनती थी

हमें दल दिये दलित बनाकर
पीस कर पांव का धूल बनाकर
रौंद-रौंदकर बर्बाद कर दिया
समाज में गिरा के अछूत बना दिया

मैं दलित नहीं तुमने ही बनाया है
नीच जाति कहकर बुलाया है
अपने पूर्वजांे की राह पर चलते रहे
यह रस्म हर दौर में निभाया है

आज भी वही निभा रहे हो
लोगों में अराजकता फैला रहे हो
इति से वर्तमान तक नहीं भूलुंगा
मैं अब तो तुम्हें नहीं छोडूं़गा....
</poem>
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