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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
}}
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<poem>
हमारे लोगों ने आखिर तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?
कि उन्हें इंसान नहीं जानवर समझा
वर्ण व्यवस्था मंे नीचे रखा
हम से गंदी बदसलूकी करते हो
हमारी माँ बहनों का जब तुम रेप करते हो
तब क्या तुम्हें
मेरी माँ की चीखों में, तुम्हारी माँ की चीखें नहीं सुनाई देतीं?
अब मैं तुम्हें तुम्हारी माँ बहनों के सामने
तुम्हारी करतूतें बता-बता के मारूंगा
शोषित महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म करते हो
और उसे देवदासी कहते हो
और देश भक्त भी बनते हो
वसुधैव कुटुम्बकम कहकर
लोगों को भ्रमित करते हो
देश से बाहर जाना अभिशाप बताकर
हमारे पलायन को रोका
हर वक्त आगे बढ़ने से रोका
कि हमें विदेशी ताकत से कोई मदद न मिले
अंधेर में कोई सूरज न खिले
इसीलिये शिक्षा के दरवाजे
हमारे लिये हमेशा के लिये
काल कोठरी में बन्द कर दिय!
कभी मरा जानवर खिंचवाया
कभी खेत खलियानों में
बैल की जगह हमें लगाया
अपनी अर्थव्यवस्था बढ़ाया
हमारे पसीने से....!
तुम्हारी फसलें लहलहाने लगीं
मगर फिर भी हमें भूखे रहना पड़ा
क्यों की सारा अनाज
खेत से तुम्हारे घर चला गया
हम निराश अपने घर लौट आये
हमारा परिवार भूखों मरने लगा
कुपोषित होकर कब्र में गिरने लगा!
विरोध करने पर दलित नौजवानों का
सारे गांव में अर्ध नंगा कर मारा
और पेट नहीं भरा तो
पेड़ पर नंगा टांग दिया
ताकि कोई विरोध न कर सके
हर दौर में राजाश्रय लेकर
हमें दमन की चक्की में रौंदा
और जी नहीं भरा तो
राजाओं से मनुस्मृति का
कड़ाई से पालन कराया
देखना बोलना व सुनना
जबरन बंद कराया!
अब ये सामंतियांे तुम जानते हो
तुम्हारे इंसान होने पर
हमें शक नहीं है
मैं यकीन से कह सकता हूँ
कि तुम जानवर भी नहीं...
</poem>
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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
हमारे लोगों ने आखिर तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?
कि उन्हें इंसान नहीं जानवर समझा
वर्ण व्यवस्था मंे नीचे रखा
हम से गंदी बदसलूकी करते हो
हमारी माँ बहनों का जब तुम रेप करते हो
तब क्या तुम्हें
मेरी माँ की चीखों में, तुम्हारी माँ की चीखें नहीं सुनाई देतीं?
अब मैं तुम्हें तुम्हारी माँ बहनों के सामने
तुम्हारी करतूतें बता-बता के मारूंगा
शोषित महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म करते हो
और उसे देवदासी कहते हो
और देश भक्त भी बनते हो
वसुधैव कुटुम्बकम कहकर
लोगों को भ्रमित करते हो
देश से बाहर जाना अभिशाप बताकर
हमारे पलायन को रोका
हर वक्त आगे बढ़ने से रोका
कि हमें विदेशी ताकत से कोई मदद न मिले
अंधेर में कोई सूरज न खिले
इसीलिये शिक्षा के दरवाजे
हमारे लिये हमेशा के लिये
काल कोठरी में बन्द कर दिय!
कभी मरा जानवर खिंचवाया
कभी खेत खलियानों में
बैल की जगह हमें लगाया
अपनी अर्थव्यवस्था बढ़ाया
हमारे पसीने से....!
तुम्हारी फसलें लहलहाने लगीं
मगर फिर भी हमें भूखे रहना पड़ा
क्यों की सारा अनाज
खेत से तुम्हारे घर चला गया
हम निराश अपने घर लौट आये
हमारा परिवार भूखों मरने लगा
कुपोषित होकर कब्र में गिरने लगा!
विरोध करने पर दलित नौजवानों का
सारे गांव में अर्ध नंगा कर मारा
और पेट नहीं भरा तो
पेड़ पर नंगा टांग दिया
ताकि कोई विरोध न कर सके
हर दौर में राजाश्रय लेकर
हमें दमन की चक्की में रौंदा
और जी नहीं भरा तो
राजाओं से मनुस्मृति का
कड़ाई से पालन कराया
देखना बोलना व सुनना
जबरन बंद कराया!
अब ये सामंतियांे तुम जानते हो
तुम्हारे इंसान होने पर
हमें शक नहीं है
मैं यकीन से कह सकता हूँ
कि तुम जानवर भी नहीं...
</poem>