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लाशों का ढेर / बाल गंगाधर 'बागी'

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<poem>
श्मशान में हमेशा मुर्दे जलाये जाते हैं
मगर दलित तो जिंदा जलाये जाते हैं
गांव हो या शहर या फिर चौराहों पर
भरे समाज में नगा घुमाये जाते हैं

मेरा शरीर तब लाशों का ढेर लगता है
शर्म के बोझ से हजार बार मरता है

मेरा वजूद पर अक्सर मुझे उठता है
नंगा सत्य समाज का दिखाता है
दमन की नीतियों से रू-ब-रू कराता है
जाति की खाई के गहराई को बताता है

हम इंसान होके अछूत कहलाते हैं
अक्सर घाव जाति के दिये जाते हैं

अच्छे कपड़े में जब भी हम निकलते हैं
वह हमें नेता या फिर ठेकेदार कहते हैं
सलाम उनको हम जब कभी नहीं करते
तो तिरछी नजर से घूरा करते हैं

काम न करें उनका, तो बुरा लगता है
झुक के न चलें, दिल उनका खौल उठता है

हम जाति-पाति की गरीबी में घुटते हैं
मगर वो जाति का सर उठा के चलते हैं
जब भी हद से ज्यादा वो खौल उठते हैं
शोषित बस्तियों पे आग ही उगलते हैं

दौलत शोहरत1 एकाधिकार उनका है
दोनों पर संस्कृति का दाब उनका है
समाज में मेरा मुकाम कुछ भी नहीं
मेरे सम्मान पे उनका जवाब कुछ भी नहीं
हम नीच नहीं, क्यों अछूत बनके रहना है?
हम क्यों करें उनका जो कुछ कहना है

समाज अपमान की क्यों बेड़ियाँ पहनाता है
दलित बनाकर क्यों ऐसी सजा सुनाता है

शहर से गाँव तक जाल को फैलाये हैं
खेत से कंपनी तक लोग उनके छाये हैं
हल के पीछे उनके हम हलवाहे हैं
खुले आकश में घने उनके साये हैं

इस व्यवस्था का तंत्र ही पुराना है
लेकिन इस सारी संस्कृति को मिटाना है
</poem>
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