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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
भरे बरसात हमारा घर जलता रहा
मगर आनंद उनकी आंखों को मिलता रहा
हमारा वजूद तब ज्वालाओं में बदलता है
हमारी जिंदगी का जब आन-बान मिटता है

आओ लड़ते हैं ज़ुल्मों की रातों से
चलो उठाओ अब तो मशाल हाथों में

जंग को और भी मज़लूमों तेज करना है
ज़ालिमों से डट कर मुकाबला यूं करना है
दूरियां मिटाओ ‘औ’ तोड़ने की बातंे
इंसानियत की जंग में अब साथ-साथ चलना है

जिंदा जलते लाशों का ढेर लगता रहा
हमारी जिंदगी का आन-बान मिटता रहा

किसने मिटाई सदियों से अपनी हस्ती
खून को बहाया था जान मेरी थी सस्ती
अपमानित तो शोषित होते थे जबर्दस्ती
सदियों से ऐसी रही मज़लूमों की मस्ती

ओा लड़ते हें ज़ुल्मों की रातों से
चलो उठाओ मशाल अब तो हाथों में
</poem>
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