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Kavita Kosh से
उड़ गए, इस-उस खोरी, बुढ़िया भगाएँ, कितना भगाएँ, ऊ भी कहँवा तक, जब आपन पोतवा
भी करे, 'हे होलरी, होलरी-होलरी, होलरीऽऽऽ', गावे दुआरे-दुआरे, दुआरी-दुआरी
'हे समतs समतऽ गोसाईं दसगो गोइंठा गोइँठा दऽ, तोहार बाल-बाचा जिए दसगोगोइंठा गोइँठा दऽ', और ऊ देतीं भी तो दु-चार ही, पर
इतने से कइसे जरेगी समत
खिड़की से लगा रहीं ठहाके, नइकी-पुुुरनकी पतोहुएँ, दूर भगा लौट रहीं बुढ़िया, तो उनके बुढ़ऊ खीस में
घोल रहे और खीस, पछुआ खोंस मचाने लगे शोर, 'हे होलरीऽऽऽ, होलरी-होलरी, होलरीऽऽऽ', पिनपिना
गईं बुढ़िया कि, 'हई देखो रे, हई बुढ़वन को, जोम में लौंडा लौण्डा बन रहे', दौड़ा दिया उन्हें भी लिए
लबदा कि, 'आओ, अउर कउँचाओगे, आओ', अइसे में उनके मरद भी, लकड़ी
की चइली मिली, चाहे टूटल-फाटल चौखट-खटिया, उठा दे आए
छोकड़ों को गाते कि, 'हे समतऽ गोसाईं दुगो बुद्धि
फिर भीरी आ, भरने लगे अँकवार
सुबेरे से, जो किरासन तेल, पी रही थी होलरी, उसे लिए, और होलिका से लहका
मचाते शोर, होड़ में होड़, भाँजते चले गाँव-जवार में चहुँचोर, चले 'होलरी-होलरी'
की रेरी बाँधे तो कोई दुआर-बथान पर कि छप्परी-आँगन में न फेंकेेंफेंकें
कोई मड़ई-झोंपड़ी बाहर जोड़े हाथ कि लहक गईं तो
बेटी-बहिन उघार, कोई खेत-खरिहान