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नदी / निकिता नैथानी

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'''नदी को समझने की कोशिश में कुछ पंक्तियाँ ''' '''कि किस तरह सदियों से निरन्तर बहती हुई, ''' '''आम और खास के लिए समान रूप से देखभाल करती हुई ''' '''आज किस हालत में पहुंच गई है – नदी'''
पल्लवित जीवन हुआ
जिसके तटों पर
सभ्यताएं सभ्यताएँ गीत गाती हैं
जो अपने प्रेम की छाया में
सबको समेटे जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।है ।।
जिसने देखा है उठ केउठके
ख़ाक होना सभ्यताओं का
जिसने देखा है होता खेल
सिंहासन का सियासत का
कि जिसके रेतीले आंचल आँचल को
चीरा है हथियारों ने
कि जिसके प्राण को रक्तिम किया
मासूमों कि की जानों सेनेवह आज भी उस मंजर मँज़र पर
तड़पती जा रही है
वो नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।है ।।
कि जिसने देखी है
मासूम -सी अल्हड़ जवानी
सर पर गागरी पैरों में
छम-छम पायल बजाती
कि जिसकी हंसी की
खनक से था पनघट महकता
वह भर के आंख आँख में आंसू
उस दिन चुपचाप आई
वह नदी की गोद में
अबतक अब तक सिसकती जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।है ।।
जिसने देखा है महकना
बसंती बसन्ती हवा का
जिसने देखी है छटा
बरसात की फुहारों की
जिसके किनारों पर बहारें
झूम उठती थी थीं जबउठता था में मन में ज्वार औरमिल जाती थी अकस्मात नजरेंनज़रेंवह शर्मो शर्म-ओ-हया से भीगती
पलकों में ठहरी जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।है ।।
कि जिसने हमको
जीवन दिया , दर्शन दिया
कि जिसने जगत को
दान में अमृत दिया
उसी का स्वर समस्त
शक्ति से निचोड़ डाला
उस का कंठ कण्ठ अपनी
हथेलियों से घोंट डाला
फिर भी वो मां माँ है
हमको सहती जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।है ।।
</poem>
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