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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
बाज़ फ़ितरत से आया नहीं बाज़ फिर
इक परिंदे के ऊपर गिरी गाज फिर।

कोई रिश्ता नहीं है कलंकित हुआ
दी गई ज़लज़ले को है आवाज़ फिर।

घुंघरूओं से छिले थिरकते क़दम
तार सहमे हैं रोया बहुत साज़ फिर।

किस पे आखिर भरोसा करे ज़िन्दगी
वक़्त ने दोस्त बदला है अंदाज़ फिर।

हमको फिर ज़ख़्म अपने छुपाने पड़े
ले नमक हाथ में वो मिला आज फिर।

इसलिए हमने सच से किनारा किया
हो न जाएं कहीं आप नाराज़ फिर।

दो उसूलों को 'विश्वास' आवाज़ तुम
हो गये इक ज़माने का आग़ाज़ फिर।

</poem>
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