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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
मुख़्तलिफ़ लोगों से मिलना उम्र भर अच्छा लगा
मुझको सचमुच मेरा होना दर-बदर अच्छा लगा।

दूर तक मंज़िल न कोई मरहला इस राह में
मील का पत्थर नहीं फिर भी सफ़र अच्छा लगा।

रूह पर तो रंग कोई दूसरा चढ़ता नहीं
जब कभी मेरा हुआ ख़ूने-जिगर अच्छा लगा।

आपने भी फाड़ डाली अपनी सारी अर्ज़ियाँ
आप भी खुद्दार हैं यह जानकर अच्छा लगा।

की मिरी तारीफ जब तो खोलते मेरी किताब
क्यों नहीं मुझको पढ़ा मैं था अगर अच्छा लगा।

आपको कहना मुझे सुनना था आगे भी मगर
ग़म के अफ़साने का होना मुख़्तसर अच्छा लगा।

है वो ही दीवारो-दर आंगन वो ही बिस्तर वो ही
शख्स इक आया तो मुद्दत बाद घर अच्छा लगा।

दिल के गहराई से जब सोचा तो मुझको मां क़सम
मेरे दुश्मन का मिरे दिल पर असर अच्छा लगा।

</poem>
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